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भुखमरी के कगार पर पहुंचा लोकगायक हीरा सिंह राणा का परिवार

भुखमरी के कगार पर पहुंचा लोकगायक हीरा सिंह राणा का परिवार

– बेटा बेरोजगार तो मां लाचार, कैसे हो गुजारा
– क्या यही है हमारी संस्कृति और लोककलाकारों का संरक्षण?

उत्तराखंड के प्रख्यात लोकगायक हीरा सिंह राणा का पूरा जीवन मुफलिसी में बीता। वह ताउम्र पहाड़ की पगडंडी से लेकर महानगर दिल्ली में प्रदेश की संस्कृति और विरासत का गुणगान करते रहे। पहाड़ को अपने शब्दों और कंठ से आवाज देते रहे ताकि सत्ता के गलियारों में पहाड़ की पीड़ा की आहट तो हो। कठिन संघर्ष, विषम परिस्थितियों और माटी-थाती के प्रति समर्पण का सिला उन्हें न तो जीते जी मिला और न अब मिल रहा है। उल्टे उनका परिवार आज भुखमरी की सी हालत में है। उनकी सुध लेवा कोई नहीं है।

एक समय लगा कि लोकगायक हीरा सिंह राणा को शायद जीवन का एक मुकाम मिल गया हो। केजरीवाल सरकार ने उन्हें कुमाऊंनी-गढ़वाली, जौनसारी भाषा एकादमी का उपाध्यक्ष बना दिया था। हालांकि उन्हें नाम के सिवाय चवन्नी का लाभ नहीं मिला था। लेकिन सम्मान तो था। बदकिस्मती साथ चल रही थी और एक जून 2020 में लोकगायक राणा का निधन हो गया। कहते हैं कि सुख पर दुख की बदली आती-जाती रहती है लेकिन लोककवि और लोकगायक राणा के जीवन में तो सुख संभवत आया ही नहीं। विपरीत परिस्थितयों में 2012 में बेटी ने साथ छोड़ दिया।

हीरा सिंह लोकगायक राणा
हीरा सिंह लोकगायक राणा

लोकगायक राणा का बेटा हिमांशु राणा स्नातक है। लोकगायक राणा की पत्नी विमला राणा के अनुसार पिता के निधन के बाद डिप्टी सीएम मनीष सिसौदिया ने उसे डेली वेजिज पर हिन्दी एकादमी में नौकरी पर लगा दिया था। लेकिन दो साल बाद छंटनी का शिकार हो गया और पिछले पांच-छह महीने से वह घर में बैठा है। कोई नौकरी नहीं मिल रही। पांच अगस्त को एक इंटरव्यू दिया है, लेकिन उसका भी जवाब नहीं आया।

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विमला राणा के अनुसार उन्हें दो हजार विधवा पेंशन मिलती है। वह भी समय पर नहीं मिलती। उत्तराखंड सरकार का संस्कृति विभाग तीन हजार रुपये मासिक पेंशन देता है लेकिन यह पांच-छह महीने में एक बार ही मिलती है। ऐसे में गुजारा चलाना बहुत मुश्किल है। वह कहती हैं कि बेटे को नौकरी मिल जाती तो जीवन कुछ सुधर जाता। मुश्किलें कम हो जाती।

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यह बता दूं कि स्व. हीरा सिंह राणा फक्कड़ रहे। उन्हें दिल्ली के वेस्ट विनोद नगर में दो कमरों का एक फ्लैट भी बागेश्वर के बिजनेसमैन ने गिफ्ट दिया। वरना किराये के मकान में ही गुजर-बसर हो रही थी। लोकगायक हीरा सिंह राणा ने पहाड़ की संस्कृति को अपनी कविताओं और गीतों के माध्यम से एक नया आयाम दिया। अल्मोड़ा के माजिला निवासी राणा 15 साल की उम्र से ही मंच पर उतर गये थे। रंगिली बिंदी, घाघरी काई, लस्का कमर बांधा, अहा रे जमाना जैसे गीतों से पहचान मिली। उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी उनकी अहम भूमिका रही थी। विमला राणा के अनुसार उन्होंने सीएम धामी को भी आर्थिक मदद और बेटे की नौकरी के लिए चिट्ठी लिखी थी। वह चिट्ठी मेरे पास है। विमला के अनुसार पता नहीं वह चिट्ठी सीएम के पास पहुंची या नहीं। कोई जवाब नहीं है।

भुखमरी के कगार पर पहुंचा लोकगायक हीरा सिंह राणा का परिवार
भुखमरी के कगार पर पहुंचा लोकगायक हीरा सिंह राणा का परिवार

यह विडम्बना है कि जो लोग पहाड़ विरोधी मानसिकता लिए हुए थे, वह हमारे भाग्य विधाता बन गये और लोकगायक हीरा सिंह राणा और उनके परिजन आज इस हालत में हैं कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल हो गया है। एक अदद नौकरी भी उनके नसीब में नहीं है। लोकगायक हीरा सिंह राणा के बेटे को नौकरी ही दिलवा दे सरकार तो मान लें कि संस्कृति का संरक्षण हो रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार श्री गुणानंद जखमोला जी की फेसबुक की वॉल से